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रामचरित मानस


 चौपाई ः


* बोलेउ काकभुसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥


सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥1॥



भावार्थ:-काकभुशुण्डिजी ने फिर कहा- पक्षीराज पर उनका प्रेम कम न था (अर्थात्‌ बहुत था)- हे नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं॥1॥



* तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥


पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥2॥



भावार्थ:-आपको न संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज! मोह के बहाने श्री रघुनाथजी ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है॥2॥



* तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥


नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥3॥



भावार्थ:-हे पक्षियों के स्वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजी, शिवजी, ब्रह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि हैं॥3॥



* मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥


तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥4॥



भावार्थ:-उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया?॥4॥



दोहा :


*ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।


केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥ 70 क॥



भावार्थ:-इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो॥ 70 (क)॥



* श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।


मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥ 70 ख॥



भावार्थ:-लक्ष्मी के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र बाण न लगे हों॥ 70 (ख)॥



चौपाई :


* गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥


जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥1॥



भावार्थ:-(रज, तम आदि) गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किस के यश का नाश नहीं किया?॥1॥



* मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥


चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥2॥



भावार्थ:-मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगाया? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया? चिंता रूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया? जगत में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो?॥2॥



* कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥


सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3॥



भावार्थ:-मनोरथ क्रीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान्‌ कौन है, जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?॥3॥



* यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥


सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3॥



भावार्थ:-मनोरथ क्रीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान्‌ कौन है, जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?॥3॥

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